
साक्षात्कार की प्रथम पंक्ति - ‘‘काफी महत्वपूर्ण सम्पादक हैं रवीन्द्र कालिया" नेबर्स एनवी, ओनर्स प्राइड की पृष्ठभूमि से उभरती है। अंक (प्रेम व ) अति महत्वपूर्ण हिन्दी साहित्य के लिए का पैमाना - ‘‘मुझे याद नहीं कि कालिया जी के सम्पादन को छोड़कर किसी पत्रिका ने ऐसा चमत्कार किया हो कि उसके आठ-आठ पुनर्मुद्रण हुए हों।’’ वही बाजार। जितनी अधिक माँग, उतना महत्वपूर्ण।
माननीय, आप दोनों की जुगल-जोड़ी यदि ‘मनोहर कहानियाँ’ या ‘सत्यकथा’ और आगे बढ़ना चाहें तो ‘इन्द्रलोक’ आदि के लिए काफी उपयुक्त रहेगी। बाजार में इनकी माँग ‘नया ज्ञानोदय’ से कई गुना अधिक है। हो गया न महत्त्व साबित !
हमारा शर्म से सिर झुक जाता है हिन्दी पाठक का ऐसे वक्तव्य-विचार जानकर हिन्दी के तथाकथित महारथियों से। वैसे पितृसत्ता के वाहक एक ‘पुलिसिये’ से स्त्री के लिए ‘छिनाल’ जैसे शब्दों की नाउम्मीदी निरी बेवकूफी ही होगी।
स्त्री-देह की मुक्ति तथा ‘स्त्री-मुक्ति’ दो अलग विषय हो सकते हैं विभूति जी के लिए।
कुलपति महोदय शायद यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि स्त्री पर सारी वर्जनाएँ इसकी ‘देह’ से ही शुरू होती हैं। तभी तो वे यह कहने की हिम्मत जुटा पाते हैं कि ‘‘लेखिकाओं में होड़..... मिल जाएँगे। दरअसल इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गये हैं।’’
स्त्री को ‘छिनाल’ की उपाधि से नवाजना क्या ‘स्त्री-देह’ के बाहर की बात है या यह महत्वपूर्ण नहीं है ! आज भी तथाकथित सभ्य समाज में आए दिन पंचायतों के फरमानों पर स्त्री को निर्वस्त्र कर सड़कों पर दौड़ाना, इनके फुटेज बनाकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर दिखाना तथा इन पर लम्बी चर्चा कर अपना टीआरपी बढ़ाना तथा ‘विभूतिनारायण अपने कैमरामैन रवीन्द्र कालिया के साथ’ का चित्रण एक ही प्रकार के प्रायोजित कार्यक्रम लगते हैं।
2 टिप्पणियां:
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
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प्रसंगवश अपनी कहानी 'मनुष्य और मत्स्यकन्या' की चर्चा यहां देखकर सुखद विस्मय हुआ। शुक्रिया..
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