बुधवार, 1 सितंबर 2010

हुसैन प्रसंग : ना वो समझे हैं ना ... - विशाल

(कथादेश के जुलाई अंक में प्रकाशित प्रभु जोशी के लेख का सन्दर्भ ग्रहण करें)
प्रभु जोशी का ‘हुसैन प्रसंग’ के कलात्मक वितान और उसी के दरम्यान उलझे उनके कुछ विवादित चित्रों के पक्ष को विद्वत्ता के साथ बयान करता है। लेकिन आलेख को अतिरिक्त सावधानीगत संतुलन प्रदान करने के चक्कर में ये खुद ही गहरे अंतर्विरोध का शिकार हो गया है। ‘सामाजिक अनुभवों’ के तल में कलानुभव को रखकर अर्थ-विस्फोट की बात वाकई कला-साहित्य की रचनात्मक अराजकता या दुःसाहसिकता को अच्छे से समझाती है। लेकिन सवाल ये है कि रचनात्मक अराजकता क्या केवल चित्रकार की होती है या चित्र का वितान भी चित्रकार से निरपेक्ष होकर स्वयं यह रचनात्मक अराजकता अर्जित कर लेता है। दूसरी तरफ प्रभु जोषी अलौकिकता को लौकिक बनाने की प्रक्रिया में जिस ‘सुरक्षित’ दोहन की बात कर रहे हैं, वो अतिरिक्त रूप से बरती गई सावधानी ऊँचे कला-स्पंदनों में थिरकते सृजक को सामान्य रचनाकार में घटा देने के लिए पर्याप्त है। कह नहीं सकता, इस अतिरिक्त ‘सावधानी’ से रचे गए चित्र गहरे रचनात्मक आयामों को किस स्तर पर छू पाते होंगे, जबकि सृजन की उन ‘गहरी बावड़ियों’ में ‘असावधानी’ से हम बस यूँ ही जा पड़ते हैं। वास्तव में जोषी जी की ये ‘सावधानी’ हुसैन के इन चित्रों को अप्रत्यक्ष रूप से नैतिक मान्यताओं के आइने में ही देखने लगती है।

अपने लेख में प्रभु जोषी यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि उत्कृष्ट कला के लिए ‘सामान्य कला रसिक दृष्टि’ की अवहेलना नितान्त जरूरी होती है परन्तु इस सबके बावजूद वे हुसैन को इन चित्रों के वापस लेने का सुझाव देते हैं और तर्क देते हैं कि इनमें उच्च कलात्मकता का अभाव है और हुसैन के पक्ष में खड़े बुद्धिजीवियों को यह कहकर गरियाते हैं कि वे इनके इन चित्रों के इकहरे रेखांकनों से ऐसा अर्थ उगलवाना चाहते हैं जो उसमें है ही नहीं। लगता है, प्रभु जोषी जी जैसा अनुभवी चित्रकार-आलोचक आज भी अर्थ को चित्रों से मुक्त होकर अनुभव नहीं कर सका है। अर्थों के लगातार विस्तारित होते रंग तो रेखांकनों-चित्रों में सुहृदयों को ही भरने होते हैं, तभी कोई कृति अपने रचना-विधान और रचनाकार से मुक्त होकर नये-नये अर्थ-आयामों में लगातार फैलती जाती है। याद आता है, इस प्रसंग में मोडर्न आर्ट पर हुसैन का लोहिया को दी गई वह संवेदित तर्क-काया - ‘‘माॅर्डन आर्ट का एक मजेदार पेचीदा पहलू यह है कि देखने वाला अपनी मर्जी और मिजाज में तस्वीर को ढालने का हक रखता है ... एक लिहाज से माॅडर्न आर्ट का मिजाज अमीराना नहीं ‘डेमोक्रेटिक’ है।’’ वास्तव में हर चित्र केवल एक ‘पुष’ है जो हमें हमारे अंतस् से गुजारकर हमें कोई अपना ही कोई दबा-छुपा अर्थ दे जाता है।

असल में अस्तित्वगत चेतना के स्तर से बनाई गई कोई भी पेंटिंग क्या स्तरहीन हो सकती है ? भले ही वह कला के आलोचनात्मक उपादानों पर कम महत्व की ही क्यों न निकले। और फिर किसी कलाकार की विकास-यात्रा में कम महत्व की रचना भी उसकी महत्त्वपूर्ण रचनाओं को समझने का एक जरिया होती है। हुसैन को इन चित्रों को वापस लेने का ऐसा सौन्दर्यशास्त्रीय सुझाव देना कठमुल्लाओं और हुसैन के बीच खामख्वाह वाले बीचबचाव से ज्यादा कुछ नहीं। और फिर कलाजगत को इन कठमुल्लाओं की जरा भी परवाह करना इसलिए भी जरूरी नहीं क्योंकि ये वही लोग हैं जिन्हें वैद, रजा और यषपाल की कृतियाँ अश्लील लगती रही हैं।

दूसरी ओर प्रभु जोशी ‘जाने-माने’ हुसैन का पक्ष तो अपने इस लेख में रख पाए हैं पर स्वयं हुसैन के बीहड़ रचनात्मक एकान्त को समझे बिना ही, एक तरह से उसे नष्ट करके ही। और शायद इसी बौद्धिक झोंक में वे हुसैन को बौद्धिक रूप से विपन्न और दुर्बल बता गए - केवल इसलिए कि उन्होंने अपने पर होती बयानबाजियों का कोई जवाब नहीं दिया। इसका हुसैन को समझने के समस्त सूत्र उपलब्ध कराती उनकी आत्मकथात्मक फिल्म ‘मीनाक्षी: टेल आॅफ थ्री सिटीज़’ है जिसमें उनकी प्रेमिका मारिया जो प्राग रंगमंच की एक अभिनेत्री भी है, किसी नाटक के ये संवाद बोलती नजर आती है - ‘‘आई डिड नाॅट सी ए क्राउन/ आई नो नथिंग आॅफ हिज़ ड्रैस/ आई नो नथिंग अबाउट इट/ इट वाज़ ए ग्रेट ज्वाॅय टू सी हिम/ इफ आई वाज़ ए मोर्टल सीन, इट इज़ विदाउट माई नोइंग इट/ आई डू नाॅट नो, इफ आई एम ए मोर्टल सीन एंड इफ प्लीज़ गाॅड, इट विल नैवर सो बी/आई हैव आलवेज़ आन्सर्ड दैट यू विल नॉट दिस फ्रॉम माई लिप्स/गो एंड आस्क इट आॅफ हिम/आई विल नाॅट टैल यू एनीथिंग दैट कांसर्न्स माई किंग/देअर आॅन, आई विल नाॅट स्पीक।’’... और कलाकार की सच्ची आत्मा कभी नहीं बोलेगी। पर कुछ कहती हमेशा रहेगी। और बोलने और कहने का यह अन्तर हम कभी नहीं मिटा पाएँगे। हुसैन की आत्मा इस ठूठ समाज में अपने चित्रों के पीछे छिपी उस उच्चतम कला-प्रेरणा का कोई भी बयान अथवा किसी भी तरह की सफाई देने से इनकार करती है। जिनमें अभीप्सा हो, वे उस प्रेरणा से जाकर स्वयं पूछे, उसका साक्षात्कार करे। और रही बात हुसैन द्वारा माधुरी को माँ बताना, तो उसे जोशी जी ‘हुसैन की कहानी अपनी जुबानी’ में ‘माँ - अधूरी’ में पढ़ लें।

मुझे लगता रहा है कि स्वयं किसी के लिए चीजों या इस समूचे दृश्य-अदृश्य जगत का बे-हद उदात्तीकरण सम्भव है परन्तु दूसरों के लिए सम्प्रेषण के सम्बन्ध में उनका एक हद तक ही उदात्तीकरण सम्भव है। और यही वह नुक्ता है - ‘प्वाइंट आॅफ रेफरेन्स’ जहाँ मसला ‘समझ’ का या फिर ‘इंटेलीजेंस’ का न होकर वैसा ही ‘हो जाने’ का है, जहाँ समझने और होने का फर्क गर्क हो जाए। ऐसी है... उन सिले होठों की नीरव प्रेरणा।

दूसरी ओर प्रभु जोशी का हुसैन के पक्ष में खड़े बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भाषा का तार्किक जाल रचने वाले ‘पेड क्रिटिक’ बतलाना केवल उन मीडियोकर चित्रकारों-आलोचकों की उस पुरानी पीड़ा को ही दर्शाता है जो कला-जगत में साहित्यकारों के कलात्मक आरोहण से विचलित रहे हैं। जबकि जे. स्वामीनाथन जैसे कवि-चित्रकार तो रंगों और शब्दों को हमेशा पास लाने और साथ लेकर चलने वाले रहे हैं। अपने ‘यात्रा’ निबंध में उन्होंने लिखा था -‘‘शब्द का निर्वासन कर देने के कारण ही हमारे समय में कला पूरी तरह उसकी अधीनस्थ हो गई है।’’ ......वे आगे लिखते हैं - ‘‘भाषा, मात्र बुद्धि के माध्यम के रूप में, भाषा शब्द की दुर्बोधता और उसके सौन्दर्य को सपाट करती और उन्हें मलत्याग या हस्तमैथुन जैसी अति सीमित चीजों में विघटित कर देती है।’’ कला के लिए जे. स्वामीनाथन उस भाषा की कामना करते हैं जो कला-अनुशासनों में ढली एकआयामी दुर्बोध भाषा न होकर इतनी नाजुक, महीन और स्पंदित हो जो रंगों से मुँह जोड़कर चले। और इसी भाषा को साहित्यकारों ने कला-आलोचना को विकसित करके दी है। वास्तव में यह भी साहित्यकार बुद्धिजीवी (पेड नहीं) जिनके अंतस् में तपकर शब्द रंगों की रगों से जा लगे हैं। और यही भाषा हुसैन की आत्मकथा की भी है जो रंगों के ‘विज़डम’ की जबान है, न कि एकआयामी शुष्क बौद्धिक भाषा की।

रंगों में ही गुनने-बुनने वाले (विपन्न ?) हुसैन से षाब्दिक सफाई की प्रभु जोषी की माँग का जवाब उन्हें ‘मीनाक्षी’ फिल्म में मिल जाना चाहिए, जिसमें हुसैन एक लेखक के रूप में शब्दों की यात्रा से कैसे रंगों तक और रंगों में कैसे मुकम्मल होते शब्दों की आभा को दिखाते हैं। और अन्त में कहीं से कोई जवाब या जरिया न निकलने पर रंगों से ‘सदा’ आती है और रंगों में ही मानो सारे शब्द रंग जाते हैं। रंग की जबान और मुँह की जबान का फर्क यहाँ मिटता भी है और कंट्रास्ट में उभरता भी है। बौद्धिक रूप से विपन्न को तो जाने ही दीजिए। अति बौद्धिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति ‘मीनाक्षी’ जैसी अंतहीन आयामों बिखरी, रंगों की ऐसी शब्द की आहट तक नहीं पा सकता।

अंत में फिर भी मैं कहना चाहूँगा कि प्रभु जोशी ने कला की स्वयं अपने द्वारा सृजित स्वतंत्रता के आलोक में एक कलाकार के पक्ष को बौद्धिक और कुछ आनुभाविक स्तरों पर भी अच्छे से खंगाला है। परन्तु इसकी आड़ में वह बहुत कुछ ऐसा कह गए हैं जो बिचैलियों और बौद्धिक प्रपंच की भाषा है जिसमें कला को परखने के औजारों की चमक नैसर्गिक कला-दृष्टि के उद्दीपन को धुंधला कर दे रही है।
232-ब्रह्मपुरी, मुजफ्फरनगर-251001 (.प्र.)
मोबाइल: 9997045167
(विशाल युवा कवि एवं उभरते हुए आलोचक हैंएक कविता संग्रह 'आज भी अनादि से' प्रकाशितउपर्युक्त आलेख कथादेश के अगस्त अंक में प्रकाशित है.)

1 टिप्पणी:

Arun sathi ने कहा…

विचारणीय लेख।